परिषदीय विद्यालय, विलय से विलुप्त की ओर
विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी होने के नाते विलय, विलायक और विलयन खूब पड़ा, समझा और याद किया... मगर कुछ वर्षों से विलय, संविलयन, मर्ज का अर्थ, असर, समझ आना शुरू हुआ। जिसमें विलय का अर्थ कई रोजगार, कई पद और कई नौनिहालों की नजदीक शिक्षा सुविधाओं का विलुप्त होना प्रतीत हो रहा है। विलय का भविष्य भी समझ आ रहा है किन्तु विलय होने वालों का भविष्य नहीं और विलय करने वाली विलयन नीति भी समझ आ रही है.. मगर क्या कर सकते है, सिवाय अपने मन की व्यथा लिखने के... हो सकता है इससे कुछ जागरूकता आये और विलयन से लड़ने के लिए कुछ शिक्षा सामाजिक हीरो आ जाये और कुछ समाधान निकले।
पहले एक प्रांगण में संचालित दो विद्यालयों को "संविलयन' के नाम पर विद्यालयों का विलय, प्ति 150 से कम प्राथमिक में व 100 से कम उच्च प्राथमिक विद्यालय में, छात्र संख्या होने पर हेडमास्टर पद का विलय या विलुप्त, अब 50 से कम छात्र संख्या होने पर पूरे विद्यालय का विलय। एक अप्रत्यक्ष विलय और हो रहा है।
जो धीमे जहर की भांति है, यथा विद्यालयों का जर्जर होने के बाद नीलामी करवा कर भूल जाना । क्योंकि स्कूल तो अडोस-पड़ोस में या पेड़ के नीचे चल ही जाएगा लेकिन भौतिक सुविधाओं व विद्यालय भवन के अभाव में बच्चें 50 से कम हो जाएंगे तो... फिर लग जायेगी विलयन की विद्यालय विलय नीति।
कुछ कुतर्की ज्ञानी, अंध भक्त, शिक्षा के प्रति रतौंधी रोग से ग्रस्त लोग (रतौंधी इसलिए क्योंकि इनकी नजरों में शिक्षा की तुलना का नजरिया ही कमाल है जो कि निजीकरण और सरकारी के प्रति घोर पक्षपात युक्त है) जो कि शिक्षक को दोष देते हैं। उनकी वेतन, उनकी छुट्टी का रोना रोते हैं या फिर उनको खुद के बच्चों को सरकारी स्कूल में न पढ़ाये जाने का विधवा विलाप करते हुए पाए जाते हैं। तो वे जान लें कि प्रदेश व अन्य प्रदेश में जहां सरकारी विद्यालयों में भौतिक संसाधन ठीक है शिक्षक पूरे हैं ऐसे विद्यालयों में प्रवेश नामांकन के लिए सिफारिशें भी लगती है।
अरे रही वेतन की तो पता कीजिये उन देशों में जहां की शिक्षा व्यवस्था उच्च कोटि की है कि शिक्षक का वेतन हमारे देश के शिक्षक के वेतन से कितना अधिक है ? आपको शर्म न आ जाये तो कहना। कई ऐसे महानुभावों का कुतर्क होगा कि तो विद्यालय ठीक क्यों नहीं करते या पढ़ाते क्यों नहीं। तो यह भी जान लीजिये कि हम जंगल राज में नहीं, प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन है यहां एक के ऊपर एक उत्तरदायी पद व व्यक्ति मौजद है और अल्प संसाधनों के लिए शिक्षक नहीं अपितु पूरा सिस्टम जिम्मेदार होता हैं।
रही बात पढ़ाने की तो पढवाईये न, किसने मना किया है? मगर सिस्टम को तो पढ़ाई के अलावा हजारो कार्य करवाने है, और करवा लिए जाते है। वैसे ही सिस्टम चाहे तो आसानी से सभी से पढ़वा भी सकता है। बहुत से कार्यों के लिए तो माननीय उच्च न्यायालय के आदेशों द्वारा मना होने के बाद भी शिक्षक को उन्ही कार्यों मेंलगाया जाता है। मगर कोई सुनवाई नहीं, क्योंकि वो लोग जो इस सरकारी व्यवस्था से पढ़ कर एक मुकाम हासिल किए हैद्य जब वे ही इसकी जड़ें काटने के लिए प्रयास करते है तो शर्म आती है ऐसे लोगों से, जो ऐसी सरकार के हित की सोच में समाज के, शिक्षा के हित को दरकिनार करते है।
अरे जरा सोचिए जो व्यक्ति 400 रुपये मजदूरी से कमा रहा है 200 का पउवा पी जाता है और पउआ पी कर घर में बबाल करता है, उसके बच्चें कैसे पढ़ेंगे? ऐसे बच्चों को सरकारी विद्यालय ही पढ़ाते है और जो पानी पी-पी कर सरकारी शिक्षक को कोसते है तो वे जान लें, ऐसे बच्चों को सरकारी शिक्षक अपने पास से अपने वेतन कॉपी पेंसिल व कलम तक देता यदि ये सरकारी विद्यालय ही न तो मल्लाह का बेटा राष्ट्रपति तक और चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री तक कैसे पहुँचता?
जहां एक ओर निजीकरण वाले विद्यालय भवन, भौतिक परिवेश से ही अभिभावकों को आकर्षित करते हैं वही दूसरी ओर हम सरकारी विद्यालयों के भवन, जर्जर या दीर्घ मरम्मत के इंतजार में खत्म हो जाते हैं जिससे एक समय बाद वे विद्यालय विलुप्त ही हो जाता है। अभी तक तो यही देखने को मिला कि जब कोई जनपद बड़ा है उसका विकास, उसमें उन्नति ठीक से नहीं हो पा रही तो उसको तोड़ कर दो जनपद बना दिये गए, कोई प्रदेश बड़ा है, तो उसको दो भागों में बांट दिया। न कि किसी प्रदेश का या जनपद का विकास न होने की दशा में किसी अन्य प्रदेश या जनपद में विलय किया गया हो। पता है क्यों ? क्योंकि कि दो जनपद या प्रदेश बना देने से वहां मानवसंसाधन की अधिकता और क्षेत्रफल की कमी हो जाती है तो कार्य सहज हो जाते है।
साथ ही जनपद के लिए नए बड़े उच्चाधिकारियों के पद सृजित हो जाते हैं, ऐसे ही प्रदेश स्तर पर मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री के पद बढ़ जाते है जो कि शाशन और प्रशासन के हित में होता हैं साथ ही नए जनपद, नए प्रदेश में विकास उन्नति की सम्भवना बढ़ जाती है। लेकिन विद्यालयों के मामले में विलय... जबकि विद्यालय में तो पहले से मानव संसाधन (शिक्षक) कम, ऊपर से भैतिक संसाधनों की कमी, साथ में कुकरमुत्तों की तरह उगे मान्यता प्राप्त व गैर मान्यता प्राप्त शिक्षा के व्यवसायिक अड्डे जिनमें अप्रशिक्षित किन्तु पर्याप्त लोग (शिक्षक) व भौतिक संसाधन युक्त विद्यालय भवन भी। जो कि स्वभावतः आकर्षक के केंद्र बन जाते हैं। वास्तविकता पर ध्यान दे तो आप पाएंगे कि विद्यालय विलय नहीं विलुप्त हुए हैं। दो विद्यालयों में एक रह जाना तो एक तो विलुप्त ही हुआ न। इस प्रकार कई शिक्षक पद, कई रसोड्या और शिक्षा हेतु कई लाखों की ग्रांट विलुप्त ही हुई न। इस प्रकार पूरे भारत देश में 50000 से ज्यादा विद्यालय विलुप्त हुए हैं।
जर्जर विद्यालय होने पर, पहले इनके भवन नीलाम होने, बनेंगे कब पता नहीं? जिससे फिर ये विलय से विलुप्त की और सहजता से चले जायेंगे। जब कोई पुल की मियाद खत्म हो जाती है या जर्जर हो जाता है तो उसके टूटने से पहले दूसरा बन जाता है ठीक उसी प्रकार जैसे सचिवालय, मंत्रियों के आवास उच्चाधिकारियों के कार्यालय मगर विद्यालय क्यों नहीं? ऐसे प्रश्नों से लगता है जैसे शिक्षा के प्रति कोई गहरी साजिश तो नहीं हो रही।
इतिहास में डलहौजी की राज्य हड़प नीति विलय नीति थी, तो वर्तमान में मुफ्त सरकारी शिक्षा विलय नीति बन चुकी है। दिखता कुछ है बताया कुछ जाएगा मगर होगा कुछ। अब ऐसा प्रतीत होने लगा है मानो मुप्त शिक्षा ध्सरकारी शिक्षा को विलय से विलुप्त ही किया जाएगा। प्रश्न उठता है कि पूरे देश मे एक राष्ट्र एक चुनाव पर कानून लाने का कार्य किया जा सकता है तो एक राष्ट्र, एक शिक्षा व्यवस्था, एक पाठ्यक्रम एक, स्वास्थ्य सुविधा, एक पेंशन जैसे मुद्दों पर भी तो कार्य करें।
मेरा मानना है एक राष्ट्र एक चुनाव हो या न हो मगर एक राष्ट्र एक शिक्षा व्यवस्था, एक पाठ्यक्रम, एक समान स्वास्थ्य व्यवस्था, एक समान पेंशन अवश्य हो। जबकि इन मुद्दों पर नीति भविष्य घातक बन रही है। जो कि विलुप्त की ओर इशारा करती है। मेरी सोच इन मुद्दों पर अल्प व गलत हो सकती है मगर शत प्रतिशत मैं गलत नहीं हो सकता। अतः शासन, प्रशासन, नीतिनिर्माताओं से अनुरोध है कि शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजों की विलय नीति के समान तो न करें। करना है तो समाधान करें क्योंकि किसी देश के उत्थान के लिए शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है। और यदि ये रास्ता प्रशस्त न किया और यूँ ही नीतियां बनती रही तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा देश गर्त की ओर जाने लगेगा। जिसमें विलय से विलुप्त को जिम्मेदार अवश्य पाया जाएगा।